*वैदिक काल के शूद्र ओर उनके अधिकार*

*🔥ओ३म्🔥*

*यज्ञोपवीत विवरण।*

यज्ञोपवीत आदिकाल से प्रथम विधानकार स्वायंभुव मनु के विधान अनुसार अद्यपर्यंत प्रचलित है ।
 यज्ञोपवीत धारण न करना अपने आपको विद्या तथा यज्ञाधिकार से वञ्चित रखना है और यज्ञोपवीत के बिना कोई द्विज नहीं बन सकता ।

*अधिकार-*

वेद का उपदेश है-
- *यो यज्ञस्य प्रसाधनस्तन्तुर्देवेष्वातत: । तमाहुतं नशीमहि ।।* ऋग्वेद मण्डल-१०,सूक्त-५७,मन्त्र-२

भावार्थ- साध्यजनों की कामना कामना है कि जो यज्ञ का साधनरुप तन्तु है(=उपवीत का धागा) वह विद्वोनों में प्रचलित हो,और उस सूत्र को हम प्राप्त करें ।"

*यज्ञियासः पञ्चजनाः मम होत्रं जुषध्वम्।* (ऋग्॰१०/५३/४)   

 पञ्चजन (ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र,निषाद) मेरा होत्र करें ।
 *‘‘पञ्चजनाः=चत्वारो वर्णाः, निषादः पञ्चमः।’’* (निरुक्त ३/८) चार वर्ण और पञ्चम कोटि का निषाद अर्थात् अरण्य ।

अब इस से स्पष्ट है कि यज्ञाधिकार सब को है, जब यज्ञाधिकार है तो बिना यज्ञोपवीत धारण किए कोई द्विजत्व(ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य वर्ण संज्ञा) तथा यज्ञाधिकार प्राप्त नहीं कर सकता । 

इसमें मनु ऋषि का प्रमाण है- *'न ह्यस्मिन् युज्यते कर्म किञ्चितदामौञ्जिबन्धनात् ।'* (मनु०२/१७१)

भावार्थ- वेद पाठन -यज्ञादि कर्म करने की योग्यता वा अधिकार उपनयन-संस्कारके अनन्तर यज्ञोपवीत धारण करने पर ही प्राप्त होती है ।  

सुश्रुत सूत्रस्थान २/५ में कहा है  *"स्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं।"* 

 इस का अर्थ यह नहीं कि शूद्र द्विज नहीं बन सकता ,तथा *"द्विजत्वप्रवेशनिषेध"* भी नहीं कहा है। और यज्ञोपवीत केवल द्विज ही पहनते हैं शूद्र नहीं । यदि शूद्र द्विजत्व प्राप्त करले तो वह शूद्र नहीं द्विज कहलायेगा इसी लिए तीनों वर्णों का ही उपनयन वर्णचयन(द्विजत्व) होता है, वहाँ शूद्रचयन नहीं होता । 
*उत्कृष्ट का नाम आर्य ,निकृष्ट का नाम शूद्र है ।"* 

 पारस्कर गृह्यसूत्र २/२/११
का वचन है कि-
*यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रमं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज: ।। यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि ।।*

भावार्थ-

"यह ब्रह्मसूत्र अत्यन्त पवित्र है, जो पूर्वकाल से चला आता है, प्रजापति के साथ ही आदिकाल से वर्तमान है । यह आयुवर्धक,अग्रणीयता का द्योतक है उसे धारण कर । यह निर्मल है,बल व तेजदायक हो ।
(हे बालक ! )तू यज्ञोपवीत है,(मैं)तुझे यज्ञ की यज्ञोपवीतता के साथ अपने समीप लाता हूँ ।"

*💥उपनयन की आयु💥*

महर्षि मनु का वचन है कि:
*ब्रह्मवर्चस्कामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे । राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ।।* मनु॰२/३७

भावार्थ - जिसको शीघ्र विद्या-तेज, बल और व्यवहार करने की इच्छा हो और बालक भी पढ़ने में समर्थ हुए हों तो ब्राह्मण का गर्भ से पांचवें, क्षत्रिय का गर्भ से छठे, और वैश्य का गर्भ से आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत करें ।

टिप्पणी:
परन्तु यह बात तब संभव है कि जब बालक की माता और पिता का विवाह पूर्ण ब्रह्मचर्य के पश्चात् हुआ होवे। उन्हीं के ऐसे उत्तम बालक श्रेष्ठबुद्धि और शीघ्र समर्थ पढ़ने वाले होते हैं।

*गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनयनम् । गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश: ।।* मनु॰२/३६

अर्थात्-
गर्भ से आठवें, ग्यारहवें, वा बारहवें वर्ष वर्ण क्रमानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का उपनयन  करना चाहिए ।

तथा पारस्कर गृह्यसूत्र-गौतमधर्मसूत्र आदि कल्पसूत्रोंमें प्रतिपादित उपनयन का समय
 -
*'अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयेद् गर्भाष्टमे वा '*(पारस्कर०गृ०२/२/१) 
*'उपनयनं ब्राह्मणस्याष्टमे '* (गौतम०धर्मसूत्र)  -में ब्राह्मण का गर्भ से आठवें वर्ष में ।

 *'एकादशवर्षं राजन्यम् ।'* (पारस्कर०गृ०२/२/२)
 
क्षत्रिय का गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में ।

और

*'द्वादशेवर्षे वैश्यम् '*
(पा०गृ०२/२/३)  

वैश्य का बारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार करें।

गौतमधर्मसूत्र का भी यही मत है-
 *'एकादशद्वादशयो:  क्षत्रिय वैश्ययो:।'* (गौतम धर्मसूत्र)

तथापि ऐसा ही पाठ आश्वलायनगृह्य सूत्र १/१९,१-६ का है-

*अष्टमे वर्षे ब्राह्मणमुपनयेत् ।१/१९/१।*
*गर्भाष्टमे वा ।१/१९/२।*
*एकादशे क्षत्रियम् ।१/१९/३।*
*द्वादशो वैश्यम् ।१/१९/४।*
*आषोडशाद् ब्राह्मणस्यानतीत: काल:।१/१९/५।*
*आद्वाविंशात् क्षत्रियस्य,आचतुर्विंशाद् वैश्यस्य,अत उधर्वं पतितसावित्रिका भवन्ति ।१/१९/६।*

अर्थात्- गर्भ से आठवें वर्ष ब्राह्मण का, ग्यारहवें वर्ष क्षत्रिय का, बारहवें वर्ष वैश्य का यज्ञोपवीत करें । तथा ब्राह्मण के सोलह, क्षत्रिय के बाईस, और वैश्य के चौबीस वर्ष पूर्व पूर्व यज्ञोपवीत होना चाहिए ,इस से पश्चात् सावित्री से पतित माने जाएंगे ।

वर्ष की गणना जन्म से नहीं ,गर्भकाल से की गयी है -

*'गर्भादि: संख्या वर्षाणाम्'* (गौतम धर्मसूत्र) 

किसी कारणवश मुख्यकालमें यज्ञोपवीत-संस्कार न हो सका हो तो --

*'आषोडशायद्वर्षाद्  ब्राह्मणस्यानतीत: कालो भवति । आद्वाविंशाद्राजन्यस्य ।    आचतुर्विंशाद्वैश्यस्य ।।* (पारस्कर०गृ०२/५/३६-३८) 
अर्थात्-
 ब्राह्मण का यज्ञोपवीत-संस्कार सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय का बाइस वर्ष तक और वैश्य का चौबीस वर्ष तक हो जाना चाहिये । 

मनु ऋषि का भी यही वचन है -
*'आषोडशाद्  ब्राह्मणस्य सावित्री  नातिवर्तते । आद्वाविंशात्     क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विश: ।।"* मनु॰२/३८
 
अर्थात्- गर्भ से सोलहवें वर्ष से पूर्व तक ब्राह्मण के, गर्भ से बाईसवें वर्ष से पूर्व तक क्षत्रिय के, और गर्भ से चौबीसवें वर्ष से पूर्व तक वैश्य के यज्ञोपवीत-काल का अतिकमण नहीं होता। अर्थात्, अधिक से अधिक इस अन्तिम अवधि तक तो उपनयन संस्कार अवश्य हो जाना चाहिए।"

*अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालं असंस्कृताः ।सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः ।* मनु॰२/३९

अर्थात्-
इसके पश्चात् वह तीनों वर्णों अर्थात् द्विजत्व के अधिकारी नहीं रहते। तब उनका नाम "व्रात्य" कहलाता है। और आर्य उनको विगर्हित(बुरा)कहते हैं।"

यज्ञोपवीत के लिये विहित मुख्य काल और गौणकाल के व्यतीत हो जाने पर वह  व्यक्ति *'पतितसावित्रिक '* वा *'व्रात्य'* हो जाता है ,जिससे समस्त कार्योमें उसका अधिकार नहीं रहता । ऐसे अनुपनीत के विषय में शास्त्रों में व्यवस्था दी है कि ऐसी स्थितिमें *'अनादिष्टप्रायश्चित्त'*  करके वह पुनः संस्कार की योग्यता प्राप्त कर लेता है । अतः *'व्रात्यस्तोम'* प्रायश्चित्त करके उपनयन-संस्कार करना चाहिये । यह व्रात्यस्तोम लौकिक अग्निमें होता है , इस व्रात्यस्तोमकी विधि कात्यायनश्रौतसूत्र(२२/४) में उपलब्ध है । अज्ञानतावश यदि यज्ञोपवीत नहीं किया गया हो तो अधिक आयु होनेपर भी प्रायश्चित्  का संकल्प कर के यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये ।

*🔥स्त्री को भी यज्ञोपवीत का अधिकार🚩*

*स्त्रिया उपनीता अनुपनीताश्च ।* यह पारस्कर गृह्यसूत्र का वचन है ।

तथा यम संहिता में लिखा है -
 *पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते । अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा ।।*
अर्थात्- प्राचीन समय में स्त्रियों का मौञ्जीबन्धन-उपनयन होता था,वे वेदादि शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन और सावित्रीवाचन करती थीं ।"

हारित संहिता में स्त्रियों के दो भेद बताए हैं- *"ब्रहवादिन्य:,सद्योवध्व:"*

पराशर संहिता के प्रसिद्ध भाष्यकार मध्वाचार्य इस(हारितोक्त भेद) कि टिका में लिखते हैं कि- 
*"द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्य: सद्योवध्वश्च । तत्र ब्रह्मवादिनीनाम् उपनयनम् अग्निबन्धनम् वेदाध्ययनम् स्वगृहे भिक्षा इति, वधूनाम् तु उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाह: कार्य:।"* 

अर्थात्- दो प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं- एक वे ब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन होता है,जो अग्निहोत्र करती हैं,वेदाध्ययन करती हैं, अपने परिवार में ही भिक्षावृत्ति से रहती हैं और दुसरी वे जिनका शीघ्र ही विवाह होना होता है । इन स्त्रियों का भी जिनका शीघ्र विवाह होना होता है जिस-किसी तरह उपनयन संस्कार कर विवाह कर देना चाहिए ।"  

इससे स्पष्ट है मध्वाचार्य भी स्त्रियों के उपनयन संस्कार के समर्थक थे ।

सम्राट हर्षवर्धन के सभारत्न बाणभट्ट कादम्बरी महाकाव्य में महाश्वेता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि- *"ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्"* अर्थात्- जिसका शरीर ब्रह्मसूत्र के धारण के कारण पवित्र था ।  

गोभिलगृह्यसूत्र २/१/१९,२०,२१ में भी कहा है- *"प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् जपेत सोमोऽददत् गन्धर्वाय इति ।"* 

अर्थात्- कन्या को कपड़ा पहने हुए,यज्ञोपवीत धारण किये हुए पति के निकट लाएँ । तथा यह मन्त्र पढ़ें "सोमोऽददत्"   

इस से स्पष्ट है कि स्त्रियों का यज्ञोपवीत होता था ।

यज्ञोपवीत में तीन धागे वा तार होते हैं । 

तीन की संख्या का बड़ा महत्व दिखता है- 

सत्त्व,रज,तम-३ गुण
पृथिवी,अन्तरिक्ष,द्यु-३ लोक
गार्हपत्य,आहवनीय,दक्षिण-३ अग्नि
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य- यह तीन वर्ण द्विज

ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ- यज्ञोपवीत धारण करने के आश्रम ३

मन,वचन,कर्म-३ एकता

कायदण्ड,वाग्दण्ड,मनोदण्ड- ३ संयम

माता,पिता,आचार्य-३ गुरु

अ,उ,म् -३ प्रणव अक्षर

भू:,भुव:,स्व:-३ महाव्याहृतियाँ

तत्सवितुर्वरेण्यम्,भर्गोदेवस्य धिमहि,धियो यो न: प्रचोदयात् -३ पाद

वात,पित्त,कफ-३ शारीर धातु

स्थूल,सूक्ष्म,कारण-३ शरीर

आध्यात्मिक,आधिभौतिक,आधिदैविक-३ दु:ख

ज्ञान,कर्म,उपासना

सत्य,यश,श्री-३ ऐश्वर्य 

परमात्मा,जीवात्मा,प्रकृति-३ अनादि सत्ता

तथा यज्ञोपवीत सूत्र के बारे में छान्दोग्य परिशिष्ट में कहा है- 
*तिथिवारं नक्षत्रं तत्त्वेदगुणान्वितम् । कालत्रयं च मासाश्च ब्रह्मसूत्रं हि षण्ण्वम् ।।*
अर्थात्- १५ तिथि,७ वार,२७ नक्षत्र,२५ तत्त्व,४ वेद,३ गुण,३ काल,१२ मास=९६ इस लिए यह ब्रह्मसूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत ९६ अंगुल का होता है । अधिक न लिखते हुए -🔥🚩 ओ३म् शम्

-जाम आर्यवीर

अधिक ज्येष्ठ एकादशी रविवार,युधिष्ठिर संवत् ५१५६

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